भारत में ट्रोलिंग और नेट फिशिंग की पारंपरिक विधियाँ: इतिहास और वर्तमान

भारत में ट्रोलिंग और नेट फिशिंग की पारंपरिक विधियाँ: इतिहास और वर्तमान

विषय सूची

1. भारत में परंपरागत फिशिंग विधियों का ऐतिहासिक परिचय

भारत में मछली पकड़ना सिर्फ एक पेशा या शौक नहीं, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और ग्रामीण जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा रहा है। सदियों से, देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग जलवायु, नदियों और समुद्र तटों के अनुसार पारंपरिक फिशिंग विधियाँ विकसित हुई हैं। इन विधियों में ट्रोलिंग (Trolling) और नेट फिशिंग (Net Fishing) प्रमुख रही हैं, जो आज भी कई समुदायों द्वारा अपनाई जाती हैं।

प्राचीन काल से मछली पकड़ने की परंपरा

ऋग्वेद, महाभारत, और अन्य प्राचीन ग्रंथों में मछली पकड़ने का उल्लेख मिलता है। सिंधु घाटी सभ्यता के समय भी लोग झीलों, नदियों और समुद्र से मछली पकड़ते थे। उस समय बांस, नारियल की रस्सी और हाथ से बने जाल इस्तेमाल किए जाते थे।

पारंपरिक उपकरण और तकनीकें

तकनीक/उपकरण विवरण प्रयोग क्षेत्र
डोरी-बंसी (Fishing Rod & Line) साधारण डोरी और कांटे के साथ मछली पकड़ना उत्तर भारत, बंगाल, असम
जाल (Net Fishing) हाथ से बुने हुए जाल का उपयोग केरल, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र
ट्रोलिंग (Trolling) नाव से चलती अवस्था में जाल डालकर मछली पकड़ना तमिलनाडु, गोवा, आंध्र प्रदेश
घेरा जाल (Circle Net) मछलियों को घेर कर पकड़ा जाता है गंगा, ब्रह्मपुत्र नदी क्षेत्र
फंदा/ट्रैप (Fish Trap) बांस या लकड़ी से बनी संरचना में मछली फँसाना पूर्वोत्तर राज्य, छत्तीसगढ़
क्षेत्रीय विविधता और सांस्कृतिक महत्व

हर राज्य की अपनी विशिष्ट पारंपरिक फिशिंग विधि है। उदाहरण के लिए, असम में झापी नामक बांस की टोकरी का उपयोग होता है तो केरल के बैकवाटर क्षेत्रों में चाइनीज फिशिंग नेट्स प्रसिद्ध हैं। तमिलनाडु और गोवा के तटीय इलाकों में नाव से ट्रोलिंग काफी लोकप्रिय है। इन सब विधियों का विकास स्थानीय जरूरतों और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार हुआ है। पारंपरिक फिशिंग आज भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और भोजन सुरक्षा का आधार बनी हुई है।

2. ट्रोलिंग और नेट फिशिंग: स्थानीय भाषा और संस्कृति में स्थान

भारत में ट्रोलिंग (घसीट जाल) और नेट फिशिंग (जाल मछली पकड़ना) की पारंपरिक विधियाँ ना केवल मछली पकड़ने के तरीकों से जुड़ी हैं, बल्कि ये स्थानीय भाषाओं, रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक जीवन का भी अहम हिस्सा हैं। विभिन्न राज्य और जनजातीय समुदाय इन तकनीकों के लिए अपने-अपने खास शब्द और तरीके अपनाते हैं। नीचे एक तालिका दी गई है जिसमें भारत के कुछ प्रमुख राज्यों और समुदायों द्वारा प्रयुक्त स्थानीय नाम, तकनीकें तथा उनका सांस्कृतिक महत्व प्रस्तुत किया गया है।

स्थानीय शब्दावली एवं तकनीकें

राज्य / क्षेत्र स्थानीय नाम (ट्रोलिंग) स्थानीय नाम (नेट फिशिंग) प्रमुख तकनीक सांस्कृतिक महत्व
केरल वल्लम वल्ली वाल्ला जालम् नौका से जाल घसीटना, कास्ट नेट फेंकना ओणम पर्व में सामूहिक मछली पकड़ना परंपरा है
बंगाल (पश्चिम बंगाल) ड्रैग नेट (घसीटा जाल) जोली/चाप जाल छोटी नौका से नदी या समुद्र में जाल फैलाना मछुआरा समुदाय का मुख्य आजीविका साधन; लोकगीतों में वर्णित
असम पोला जाल, छाबा जाल हाथ से या नाव से जाल चलाना बीहु त्यौहार पर सामूहिक मछली पकड़ना होता है
महाराष्ट्र & गोवा गिल नेट (गिलजाल), पर्स सीन जाल समुद्री तट पर बड़े समूह द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले जाल कोळी समाज की सांस्कृतिक पहचान से जुड़ा हुआ
उत्तर प्रदेश/बिहार/झारखंड (गंगा बेल्ट) बरसी, बिच्छा, घेरा जाल नदी किनारे से डोरी या छोटे गोलाकार जाल का उपयोग करना त्योहारों जैसे छठ पूजा में मछली का विशेष महत्व है
पूर्वोत्तर के जनजातीय क्षेत्र (त्रिपुरा, नागालैंड आदि) आओ जाल, बेम्बू ट्रैप्स (बांस का जाल) बांस व लकड़ी के बने पारंपरिक उपकरणों से मछली पकड़ना हर परिवार की रोजमर्रा की जीवनशैली का हिस्सा है; लोककथाओं में वर्णित

संस्कृति में ट्रोलिंग और नेट फिशिंग का स्थान

लोक पर्व और सामूहिकता

भारत के कई हिस्सों में, खासकर केरल, बंगाल और असम जैसे राज्यों में, सामूहिक रूप से मछली पकड़ना त्योहारों और पारिवारिक आयोजनों का हिस्सा होता है। इस दौरान लोग पारंपरिक गीत गाते हुए मिलजुलकर ट्रोलिंग या नेट फिशिंग करते हैं। इससे सामाजिक एकता को भी बल मिलता है।

भाषाई विविधता

भारत के हर राज्य में ट्रोलिंग और नेट फिशिंग के लिए अलग-अलग शब्द प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए, बंगाल में ‘ड्रैग नेट’ या ‘जोली’, केरल में ‘वल्लम वल्ली’ और असम में ‘पोला जाल’। यह विविधता भारतीय संस्कृति की बहुरंगी पहचान को दर्शाती है।

परंपरागत ज्ञान की पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरण

ट्रोलिंग और नेट फिशिंग की तकनीकों को बुजुर्ग लोग अपनी अगली पीढ़ी को सिखाते हैं। यह न केवल जीविका का साधन है बल्कि सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण भी करता है।

संक्षेप में

ट्रोलिंग और नेट फिशिंग भारत की स्थानीय भाषाओं एवं सांस्कृतिक संदर्भों में गहराई तक रचे-बसे हैं। इनकी विविधता देश के हर कोने की अनूठी पहचान और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवनशैली का प्रमाण देती है।

भारत के प्रमुख भौगोलिक क्षेत्रों में प्रयोग होने वाली विधियाँ

3. भारत के प्रमुख भौगोलिक क्षेत्रों में प्रयोग होने वाली विधियाँ

भारत एक विशाल देश है, जहाँ समुद्री तट, बड़ी नदियाँ, झीलें और अनेक भीतरी जल–शरीर पाए जाते हैं। हर क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति और स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार ट्रोलिंग तथा नेट फिशिंग की पारंपरिक तकनीकें अलग-अलग हैं। नीचे प्रमुख क्षेत्रों में प्रचलित कुछ खास विधियों का विवरण दिया गया है:

समुद्री तटीय क्षेत्र

समुद्री तटीय इलाकों (जैसे गुजरात, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल) में मछली पकड़ने की पारंपरिक विधियाँ बहुत लोकप्रिय हैं। यहाँ मुख्य रूप से छोटी नौकाओं (काठी नाव), पैडल बोट्स या मोटराइज्ड बोट्स का उपयोग होता है। आम तौर पर जाल जैसे ड्रैग नेट (खींचा जाल), पर्स सीन नेट, और गिल नेट का इस्तेमाल किया जाता है। ट्रोलिंग में विशेष हुक और सिंथेटिक या प्राकृतिक चारे का उपयोग कर गहरे पानी की मछलियाँ पकड़ी जाती हैं।

प्रमुख समुद्री विधियाँ सारांश तालिका

विधि प्रयोग क्षेत्र प्रमुख मछलियाँ
ड्रैग नेट (खींचा जाल) पश्चिमी/पूर्वी तट सरडिन, मैकरल, बॉम्बे डक
पर्स सीन नेट महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल ट्यूना, सरडिन
गिल नेट पूरे तटीय भारत में बड़े आकार की मछलियाँ

नदी क्षेत्र (गंगा, ब्रह्मपुत्र, गोदावरी आदि)

भारत की नदियों में प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रकार के जालों का उपयोग किया जाता रहा है। स्ट्रिंग नेट (धागा जाल), कास्टिंग नेट (फेंका जाल), और , सबसे आम हैं। कई क्षेत्रों में पारंपरिक बाँस या लकड़ी की नावों का प्रयोग होता है। मानसून के मौसम में विशेष तरह के फ्लोटिंग ट्रैप्स भी लगाए जाते हैं।

प्रमुख नदीय विधियाँ तालिका

विधि प्रयोग क्षेत्र खासियत
स्ट्रिंग नेट (धागा जाल) गंगा-ब्रह्मपुत्र बेल्ट छोटी व मध्यम मछलियों हेतु उपयुक्त
कास्टिंग नेट (फेंका जाल) उत्तर प्रदेश, बिहार, असम एकल व्यक्ति द्वारा इस्तेमाल योग्य
डिप नेट (डुबकी जाल) दक्षिण भारत की नदियाँ कम गहराई वाले जल हेतु आदर्श

झील और तालाब क्षेत्र

उत्तर भारत की झीलों (जैसे कश्मीर की डल झील) और मध्य भारत एवं पूर्वी राज्यों के तालाबों में पारंपरिक फिशिंग तकनीकों का उपयोग आज भी जारी है। यहाँ अक्सर हाथ से चलाए जाने वाले छोटे बोट्स तथा राउंड शैप्ड , बांस के बने प्लेटफॉर्म एवं लोकल डिजाइन के स्पेशल नेट्स देखे जा सकते हैं। लोग , , व लाइन फिशिंग जैसी विधियों का प्रयोग करते हैं।

झीलों एवं तालाबों में प्रयोग होने वाली विधियाँ तालिका

विधि इलाका/क्षेत्र विशेषता
कोरकल बोट फिशिंग कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश गोलाकार हल्की नाव; उथले जल में उपयुक्त
स्टेशनरी ट्रैप्स झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ स्थायी बाँस-लकड़ी के ढांचे; रातभर छोड़ते हैं
लाइन फिशिंग उत्तर भारत एवं पहाड़ी राज्य हुक व चारा लगाकर एक-एक मछली पकड़ना

भीतरी जल–शरीर (इनलैंड वॉटरबॉडीज)

इन क्षेत्रों में मछली पालन के साथ-साथ पारंपरिक ट्रोलिंग और नेट फिशिंग दोनों ही लोकप्रिय हैं। छोटे बांधों, पोखरों या कृत्रिम जलाशयों में आमतौर पर , , व फ्लोटिंग प्लाटफॉर्म्स द्वारा मछली पकड़ी जाती है। गाँवों में बच्चे-बूढ़े सब मिलकर सामूहिक रूप से यह कार्य करते हैं।

इनलैंड फिशिंग टूल्स का संक्षिप्त विवरण:
Name (नाम) Main Use (प्रमुख उपयोग)
मोसकिटो नेट्स – बेहद महीन जाली; fry fish व छोटे जीव पकड़ने हेतु
चैनल ट्रैप्स – जल प्रवाह वाले रास्तों पर रखा जाता है; स्वतः फंसती है मछली

इस प्रकार देखा जाए तो भारत के हर भौगोलिक क्षेत्र ने अपनी स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप अनूठी पारंपरिक ट्रोलिंग और नेट फिशिंग तकनीकों को विकसित किया है जो आज भी ग्रामीण जीवन का अहम हिस्सा बनी हुई हैं।

4. समकालीन समय में पारंपरिक तरीकों की प्रासंगिकता

भारत में मछली पकड़ने की पारंपरिक विधियाँ सदियों से चली आ रही हैं। हालांकि आधुनिक तकनीक और उपकरणों के आने से इनका रूप जरूर बदला है, लेकिन आज भी ये तरीके कई क्षेत्रों में उपयोग में लाए जाते हैं। इस खंड में हम देखेंगे कि कैसे ट्रोलिंग और नेट फिशिंग जैसे पारंपरिक तरीके आज भी प्रासंगिक हैं और ग्रामीण तथा तटीय समुदायों के जीवन का हिस्सा बने हुए हैं।

आधुनिक समय में पारंपरिक विधियों का महत्व

समय के साथ मछली पकड़ने के नए साधन विकसित हुए हैं, फिर भी पारंपरिक विधियाँ अपनी जगह बनाए हुए हैं। खासतौर पर छोटे गाँवों, द्वीपों और तटीय क्षेत्रों में लोग अब भी इन्हीं तरीकों का सहारा लेते हैं। कारण यह है कि ये तरीके सस्ते, पर्यावरण के अनुकूल और स्थानीय परिस्थितियों के हिसाब से उपयुक्त हैं।

पारंपरिक बनाम आधुनिक मछली पकड़ने की तकनीकें

पारंपरिक तकनीकें आधुनिक तकनीकें मुख्य अंतर
हाथ से बनाए गए जाल (जैसे चकड़ी जाल, डोरी-जाल) मशीन से चलने वाले बोट्स, बड़े औद्योगिक जाल पारंपरिक तरीके सस्ते व सरल; आधुनिक तरीके महंगे और बड़े पैमाने पर उपयोगी
स्थानीय नावों का उपयोग (डोंगी, ) इंजन वाली मोटरबोट्स पारंपरिक नावें पर्यावरण के अनुकूल; आधुनिक नावें तेज़ और अधिक क्षमता वाली
मौसमी अनुभव एवं लोकज्ञान आधारित ट्रोलिंग-नेटिंग GPS, सोनार जैसी तकनीकी सहायता पारंपरिक ज्ञान प्राकृतिक संकेतों पर निर्भर; आधुनिक तकनीक वैज्ञानिक उपकरणों पर आधारित
आज जीवित तकनीकों की झलकियाँ
  • केरल: यहां चीना वाल्ला (चाइनीज़ फिशिंग नेट) आज भी कोचीन में देखने को मिलती है, जो पर्यटकों को भी आकर्षित करती है।
  • बंगाल: सुंदरबन क्षेत्र में मछुआरे पारंपरिक जाल और छोटी नौकाओं का उपयोग करते हैं।
  • गुजरात-महाराष्ट्र: यहां की आदिवासी जनजातियाँ नदी और समुद्र दोनों में पुराने तरीकों से मछली पकड़ती हैं।
  • उत्तर भारत: गंगा-ब्रह्मपुत्र घाटी में गांववाले अपने हाथों से बनाए जाल अब भी इस्तेमाल करते हैं।

आधुनिक व्यवहार में बदलाव और चुनौतियाँ

आजकल युवा मछुआरे नई मशीनरी अपनाने लगे हैं, जिससे पारंपरिक कौशल कम होते जा रहे हैं। इसके बावजूद जो क्षेत्र आर्थिक रूप से कमजोर या दूरदराज़ हैं, वहां परंपरा टिकाऊ बनी हुई है। सरकार द्वारा चलाए गए प्रशिक्षण कार्यक्रम भी इन विधियों के संरक्षण में मददगार साबित हो रहे हैं। कुछ जगहों पर इको-टूरिज्म के ज़रिए भी इन तरीकों को बढ़ावा दिया जा रहा है।

पारंपरिक विधियों की वर्तमान स्थिति: एक नजर

क्षेत्र/राज्य प्रमुख पारंपरिक तरीका आज की स्थिति
केरल चीना वाल्ला (फिशिंग नेट) पर्यटन और स्थानीय उपयोग दोनों में लोकप्रिय
असम/बंगाल हाथ से बुने जाल गांवों में आम प्रचलन में
तमिलनाडु Kattumaram नाव, डोरी-जाल कुछ तटीय क्षेत्रों में अभी भी प्रमुख तरीका
गुजरात- महाराष्ट्र Trawl netting, डोरी-जाल आदिवासी समुदायों द्वारा उपयोग जारी
ओडिशा Bamboo traps, स्थायी जाल ग्रामीण इलाकों में जीवित परंपरा

इस प्रकार देखा जाए तो भारत की पारंपरिक ट्रोलिंग और नेट फिशिंग विधियाँ आज भी कई जगहों पर जीवित हैं और अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोए हुए हैं। उनका महत्व न केवल जीविका अर्जन के लिए है बल्कि जैव विविधता संरक्षण, सामुदायिक पहचान और स्थायी विकास के लिए भी अहम है।

5. चुनौतियाँ और भविष्य की संभावनाएँ

पारंपरिक मछली पकड़ने की विधियों के समक्ष बदलते समय की चुनौतियाँ

भारत में ट्रोलिंग और नेट फिशिंग की पारंपरिक विधियाँ सदियों से चली आ रही हैं, लेकिन आज के समय में ये कई चुनौतियों का सामना कर रही हैं। आधुनिक तकनीकों और मशीनों के बढ़ते उपयोग से पारंपरिक मछुआरों को कमाई में कमी, संसाधनों की कमी और पर्यावरणीय समस्याओं जैसी चुनौतियाँ झेलनी पड़ रही हैं। जलवायु परिवर्तन, जल स्रोतों का प्रदूषण और ओवर-फिशिंग भी इन पारंपरिक विधियों के लिए खतरा बन चुके हैं।

सरकारी नीतियाँ और संरक्षण की आवश्यकता

सरकार ने मछुआरों के हित में कई योजनाएँ शुरू की हैं, जैसे सब्सिडी, प्रशिक्षण कार्यक्रम, और लाइसेंस प्रणाली। इसके अलावा, कुछ राज्यों में समुद्री जीवन के संरक्षण के लिए बंद अवधि (फिशिंग बैन सीजन) लागू किया जाता है ताकि मछलियों की प्रजातियाँ सुरक्षित रह सकें। नीचे तालिका में कुछ प्रमुख सरकारी पहलों का उल्लेख किया गया है:

योजना / नीति उद्देश्य लाभार्थी
प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना मत्स्य उत्पादन बढ़ाना, रोजगार देना पारंपरिक एवं आधुनिक मछुआरे
फिशिंग बैन सीजन मछली प्रजातियों का संरक्षण करना समुद्री क्षेत्र के मछुआरे
सब्सिडी योजनाएँ आर्थिक सहायता प्रदान करना गरीब व छोटे मछुआरे

सस्टेनेबिलिटी के लिए भविष्य की संभावनाएँ

मछली पकड़ने की टिकाऊ (सस्टेनेबल) पद्धतियों को अपनाना समय की आवश्यकता है। इसके लिए पारंपरिक ज्ञान को आधुनिक तकनीक के साथ जोड़ना जरूरी है। सामुदायिक सहभागिता, वैज्ञानिक रिसर्च, और युवाओं को नई तकनीकों से प्रशिक्षित करना भारत में फिशिंग उद्योग को स्थिरता दे सकता है। यदि सभी हितधारक मिलकर काम करें तो पारंपरिक ट्रोलिंग और नेट फिशिंग की विधियाँ आने वाले वर्षों तक जीवित रह सकती हैं।